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Saturday, 22 January 2011
Tuesday, 11 January 2011
हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था
यूँ तो हमारे सारे ख़याल, तेरी परछाईयों के नाम होते हैं,
ना चाहकर भी, तेरी डगर में, शाम होते हैं
महफ़िल में जाकर, पाऊं मैं, की अनकहे जैसे
मेरी लबों में, तेरी यादों के, जाम होते है |
खुद को मिटाकर, इस लहर में, भूल रखा था,
पर, हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था |
कैसी थी की वो वादियाँ, जहाँ अगणित तारों में तुम,
बैठी चमकती थी सदा, लगते शशिकिरण भी कम
उन वादियों को आज खोजू, मैं विवश चहुँ ओर
पर ये दूरियाँ, मुझको लपकतीं, पाऊं मैं तम घोर |
कितने जतन से, उस किरण को, जेहन में सहेज रखा था,
पर, हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था |
माना की इस उमर में ये सभी, ज़ज्बात होते हैं
जब उफनती लहरें, जवां दिल की सौगात होते हैं
जब इस अंधेरे में हमे, कुछ और ना दिखता
जब बेखुदी में बेख़बर, बर्बाद होते हैं |
जब अपने जहाँ को, दिल मे हमने, ओट रखा था,
पर, हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था |
माना की हमने, ना कहा, कुछ खोलकर तुमसे,
माना की वैसे जख्म हैं, जो थे छिपे गहरे,
पर लफ़्ज़ों की इस अनसुनी, आवाज़ के पीछे,
बैठे सदा थे, कर्म मेरे, दे रहे पहरे |
उस कर्म की प्रतिध्वनि देखो, पूछ रखा था
हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था |
माना की मुझमें है समझ, की भूलकर बढ़ जाऊं
जो ना मिला, तो स्व भाग्य की, प्रतिति उसमें पाऊं
माना की आगे हैं परे, दुर्लभ्य से मोती,
माना की मैं खुद को तेरे, अयोग्य ही तो पाऊं |
यह सब समझकर ही तो खुद को, संभाल रखा था,
पर, हमने भी अपने लिए कुछ सोच रखा था |
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